कूष्माण्डा स्वरूप धारण करने के उपरान्त देवी पार्वती ने दक्ष प्रजापति के घर जन्म लिया। देवी पार्वती अपने इस अवतार में एक महान सती थीं तथा उनके अविवाहित रूप को देवी ब्रह्मचारिणी के रूप में पूजा जाता है।
नवरात्रि उत्सव के द्वितीय दिवस पर देवी ब्रह्मचारिणी की पूजा-उपासना की जाती है।
मान्यताओं के अनुसार, समस्त सौभाग्य के दाता मंगल भगवान को देवी ब्रह्मचारिणी द्वारा शासित किया जाता है।
देवी ब्रह्मचारिणी को पादुकाहीन चरणों से चलते हुये दर्शाया गया है। उनकी दो भुजायें हैं। वह दाहिने हाथ में जप माला एवं बायें हाथ में कमण्डलु धारण करती हैं।
देवी ब्रह्मचारिणी ने भगवान शिव को पति रूप में प्राप्त करने हेतु कठोर तपस्या की थी। उनकी कठोर तपस्या के कारण, उन्हें ब्रह्मचारिणी के नाम से सम्बोधित किया गया है।
विद्वानों के अनुसार, भगवान शिव को अपने पति के रूप में प्राप्त करने हेतु अपने तप काल में, देवी ब्रह्मचारिणी ने भूमि शयन करते हुये 1000 वर्ष तक पुष्पों एवं फलों के आहार पर तथा आगामी 100 वर्ष तक पत्तेदार शाक-सब्जियों के आहार पर व्यतीत किये थे।
इसके अतिरिक्त, भीषण ग्रीष्म ऋतु, कठोर शीत ऋतु तथा चक्रवाती घनघोर वर्षा में खुले आकाश में निर्जन स्थान पर देवी ने कठिन उपवास का पालन किया। हिन्दु पौराणिक कथाओं के अनुसार, भगवान शंकर से प्रार्थना करते हुये देवी माँ ने 3000 वर्षों तक मात्र बिल्व पत्र के आहार पर ही निर्वहन किया था। कुछ समय पश्चात् उन्होंने बिल्व पत्र ग्रहण करना भी बन्द कर दिया तथा बिना अन्न-जल के निरन्तर तपस्या की थी। बिल्व पत्र का सेवन भी त्याग देने के कारण, देवी पार्वती अपर्णा के नाम से सम्पूर्ण जगत में विख्यात हुयीं।
पौराणिक कथाओं के अनुसार, देवी ब्रह्मचारिणी ने इसीलिये आत्मदाह कर लिया था ताकि, वह अपने अगले जन्म में उन्हें ऐसे पिता प्राप्त हों, जो उनके पति भगवान शिव का सम्मान कर सकें।
चमेली
ॐ देवी ब्रह्मचारिण्यै नमः॥
दधाना कर पद्माभ्यामक्षमाला कमण्डलू।
देवी प्रसीदतु मयि ब्रह्मचारिण्यनुत्तमा॥
या देवी सर्वभूतेषु माँ ब्रह्मचारिणी रूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥
वन्दे वाञ्छितलाभाय चन्द्रार्धकृतशेखराम्।
जपमाला कमण्डलु धरा ब्रह्मचारिणी शुभाम्॥
गौरवर्णा स्वाधिष्ठानस्थिता द्वितीय दुर्गा त्रिनेत्राम्।
धवल परिधाना ब्रह्मरूपा पुष्पालङ्कार भूषिताम्॥
परम वन्दना पल्लवाधरां कान्त कपोला पीन।
पयोधराम् कमनीया लावणयं स्मेरमुखी निम्ननाभि नितम्बनीम्॥
तपश्चारिणी त्वंहि तापत्रय निवारणीम्।
ब्रह्मरूपधरा ब्रह्मचारिणी प्रणमाम्यहम्॥
शङ्करप्रिया त्वंहि भुक्ति-मुक्ति दायिनी।
शान्तिदा ज्ञानदा ब्रह्मचारिणी प्रणमाम्यहम्॥
त्रिपुरा में हृदयम् पातु ललाटे पातु शङ्करभामिनी।
अर्पण सदापातु नेत्रो, अर्धरी च कपोलो॥
पञ्चदशी कण्ठे पातु मध्यदेशे पातु महेश्वरी॥
षोडशी सदापातु नाभो गृहो च पादयो।
अङ्ग प्रत्यङ्ग सतत पातु ब्रह्मचारिणी।
जय अम्बे ब्रह्मचारिणी माता। जय चतुरानन प्रिय सुख दाता॥
ब्रह्मा जी के मन भाती हो। ज्ञान सभी को सिखलाती हो॥
ब्रह्म मन्त्र है जाप तुम्हारा। जिसको जपे सरल संसारा॥
जय गायत्री वेद की माता। जो जन जिस दिन तुम्हें ध्याता॥
कमी कोई रहने ना पाये। कोई भी दुःख सहने न पाये॥
उसकी विरति रहे ठिकाने। जो तेरी महिमा को जाने॥
रद्रक्षा की माला ले कर। जपे जो मन्त्र श्रद्धा दे कर॥
आलस छोड़ करे गुणगाना। माँ तुम उसको सुख पहुँचाना॥
ब्रह्मचारिणी तेरो नाम। पूर्ण करो सब मेरे काम॥
भक्त तेरे चरणों का पुजारी। रखना लाज मेरी महतारी॥