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Sunderkand | Pancham Sopan of Shri Ramcharitmanas with Video Song

DeepakDeepak

Sunderkand

Sunderkand is the fifth book in the Hindu epic the Ramayana. It depicts the adventures of Lord Hanuman. The original SundarKand is in Sanskrit and was composed by Valmiki, who was the first to scripturally record the Ramayana. Sundarkand is the only chapter of the Ramayana in which the hero is not Rama, but rather Lord Hanuman.

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श्री राम चरित मानस-सुन्दरकाण्ड (दोहा 37 - दोहा 42)

॥ दोहा 37 ॥

सचिव बैद गुर तीनि जौं प्रिय बोलहिं भय आस, राज धर्म तन तीनि कर होइ बेगिहीं नास।

॥ चौपाई ॥

सोइ रावन कहुँ बनी सहाई। अस्तुति करहिं सुनाइ सुनाई॥

अवसर जानि बिभीषनु आवा। भ्राता चरन सीसु तेहिं नावा॥

पुनि सिरु नाइ बैठ निज आसन। बोला बचन पाइ अनुसासन॥

जौ कृपाल पूँछिहु मोहि बाता। मति अनुरूप कहउँ हित ताता॥

जो आपन चाहै कल्याना। सुजसु सुमति सुभ गति सुख नाना॥

सो परनारि लिलार गोसाईं। तजउ चउथि के चंद कि नाईं॥

चौदह भुवन एक पति होई। भूत द्रोह तिष्टइ नहिं सोई॥

गुन सागर नागर नर जोऊ। अलप लोभ भल कहइ न कोऊ॥


॥ दोहा 38 ॥

काम क्रोध मद लोभ सब नाथ नरक के पंथ, सब परिहरि रघुबीरहि भजहु भजहिं जेहि संत।

॥ चौपाई ॥

तात राम नहिं नर भूपाला। भुवनेस्वर कालहु कर काला॥

ब्रह्म अनामय अज भगवंता। ब्यापक अजित अनादि अनंता॥

गो द्विज धेनु देव हितकारी। कृपा सिंधु मानुष तनुधारी॥

जन रंजन भंजन खल ब्राता। बेद धर्म रच्छक सुनु भ्राता॥

ताहि बयरु तजि नाइअ माथा। प्रनतारति भंजन रघुनाथा॥

देहु नाथ प्रभु कहुँ बैदेही। भजहु राम बिनु हेतु सनेही॥

सरन गएँ प्रभु ताहु न त्यागा। बिस्व द्रोह कृत अघ जेहि लागा॥

जासु नाम त्रय ताप नसावन। सोइ प्रभु प्रगट समुझु जियँ रावन॥


॥ दोहा 39 ॥

बार बार पद लागउँ बिनय करउँ दससीस, परिहरि मान मोह मद भजहु कोसलाधीस॥(क)।

मुनि पुलस्ति निज सिष्य सन कहि पठई यह बात, तुरत सो मैं प्रभु सन कही पाइ सुअवसरु तात॥(ख)॥

॥ चौपाई ॥

माल्यवंत अति सचिव सयाना। तासु बचन सुनि अति सुख माना॥

तात अनुज तव नीति बिभूषन। सो उर धरहु जो कहत बिभीषन॥

रिपु उतकरष कहत सठ दोऊ। दूरि न करहु इहाँ हइ कोऊ॥

माल्यवंत गह गयउ बहोरी। कहइ बिभीषनु पुनि कर जोरी॥

सुमति कुमति सब कें उर रहहीं। नाथ पुरान निगम अस कहहीं॥

जहाँ सुमति तहँ संपति नाना। जहाँ कुमति तहँ बिपति निदाना॥

तव उर कुमति बसी बिपरीता। हित अनहित मानहु रिपु प्रीता॥

कालराति निसिचर कुल केरी। तेहि सीता पर प्रीति घनेरी॥


॥ दोहा 40 ॥

तात चरन गहि मागउँ राखहु मोर दुलार, सीता देहु राम कहुँ अहित न होइ तुम्हारा।

॥ चौपाई ॥

बुध पुरान श्रुति संमत बानी। कही बिभीषन नीति बखानी॥

सुनत दसानन उठा रिसाई। खल तोहिं निकट मृत्यु अब आई॥

जिअसि सदा सठ मोर जिआवा। रिपु कर पच्छ मूढ़ तोहि भावा॥

कहसि न खल अस को जग माहीं। भुज बल जाहि जिता मैं नाहीं॥

मम पुर बसि तपसिन्ह पर प्रीती। सठ मिलु जाइ तिन्हहि कहु नीती॥

अस कहि कीन्हेसि चरन प्रहारा। अनुज गहे पद बारहिं बारा॥

उमा संत कइ इहइ बड़ाई। मंद करत जो करइ भलाई॥

तुम्ह पितु सरिस भलेहिं मोहि मारा। रामु भजें हित नाथ तुम्हारा॥

सचिव संग लै नभ पथ गयऊ। सबहि सुनाइ कहत अस भयऊ॥


॥ दोहा 41 ॥

रामु सत्यसंकल्प प्रभु सभा कालबस तोरि, मैं रघुबीर सरन अब जाउँ देहु जनि खोरि।

॥ चौपाई ॥

अस कहि चला बिभीषनु जबहीं। आयू हीन भए सब तबहीं॥

साधु अवग्या तुरत भवानी। कर कल्यान अखिल कै हानी॥

रावन जबहिं बिभीषन त्यागा। भयउ बिभव बिनु तबहिं अभागा॥

चलेउ हरषि रघुनायक पाहीं। करत मनोरथ बहु मन माहीं॥

देखिहउँ जाइ चरन जलजाता। अरुन मृदुल सेवक सुखदाता॥

जे पद परसि तरी रिषनारी। दंडक कानन पावनकारी॥

जे पद जनकसुताँ उर लाए। कपट कुरंग संग धर धाए॥

हर उर सर सरोज पद जेई। अहोभाग्य मैं देखिहउँ तेई॥


॥ दोहा 42 ॥

जिन्ह पायन्ह के पादुकन्हि भरतु रहे मन लाइ, ते पद आजु बिलोकिहउँ इन्ह नयनन्हि अब जाइ।

॥ चौपाई ॥

ऐहि बिधि करत सप्रेम बिचारा। आयउ सपदि सिंदु एहिं पारा॥

कपिन्ह बिभीषनु आवत देखा। जाना कोउ रिपु दूत बिसेषा॥

ताहि राखि कपीस पहिं आए। समाचार सब ताहि सुनाए॥

कह सुग्रीव सुनहु रघुराई। आवा मिलन दसानन भाई॥

कह प्रभु सखा बूझिए काहा। कहइ कपीस सुनहु नरनाहा॥

जानि न जाइ निसाचर माया। कामरूप केहि कारन आया॥

भेद हमार लेन सठ आवा। राखिअ बाँधि मोहि अस भावा॥

सखा नीति तुम्ह नीकि बिचारी। मम पन सरनागत भयहारी॥

सुनि प्रभु बचन हरष हनुमाना। सरनागत बच्छल भगवाना॥

Kalash
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