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सुन्दरकाण्ड - श्री रामचरितमानस का पञ्चम सोपान वीडियो गीत के साथ

DeepakDeepak

सुन्दरकाण्ड

सुन्दरकाण्ड हिन्दु महाकाव्य रामायण में पाँचवीं पुस्तक है। इसमें भगवान हनुमान के साहसिक कार्यों को दर्शाया गया है। मूल सुन्दरकाण्ड संस्कृत में है और इसकी रचना वाल्मीकि ने की थी। वाल्मीकि पहले व्यक्ति थे जिन्होंने रामायण को लिपिबद्ध किया था। सुन्दरकाण्ड रामायण का एकमात्र अध्याय है जिसमें नायक राम नहीं हैं, बल्कि भगवान हनुमान हैं।

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श्री राम चरित मानस-सुन्दरकाण्ड (दोहा 25 - दोहा 30)

॥ दोहा 25 ॥

हरि प्रेरित तेहि अवसर चले मरुत उनचास, अट्टहास करि गर्जा कपि बढ़ि लाग अकास।

॥ चौपाई ॥

देह बिसाल परम हरुआई। मंदिर तें मंदिर चढ़ धाई॥

जरइ नगर भा लोग बिहाला। झपट लपट बहु कोटि कराला॥

तात मातु हा सुनिअ पुकारा। एहिं अवसर को हमहि उबारा॥

हम जो कहा यह कपि नहिं होई। बानर रूप धरें सुर कोई॥

साधु अवग्या कर फलु ऐसा। जरइ नगर अनाथ कर जैसा॥

जारा नगरु निमिष एक माहीं। एक बिभीषन कर गृह नाहीं॥

ताकर दूत अनल जेहिं सिरिजा। जरा न सो तेहि कारन गिरिजा॥

उलटि पलटि लंका सब जारी। कूदि परा पुनि सिंधु मझारी॥


॥ दोहा 26 ॥

पूँछ बुझाइ खोइ श्रम धरि लघु रूप बहोरि, जनकसुता कें आगें ठाढ़ भयउ कर जोरि।

॥ चौपाई ॥

मातु मोहि दीजे कछु चीन्हा। जैसें रघुनायक मोहि दीन्हा॥

चूड़ामनि उतारि तब दयऊ। हरष समेत पवनसुत लयऊ॥

कहेहु तात अस मोर प्रनामा। सब प्रकार प्रभु पूरनकामा॥

दीन दयाल बिरिदु संभारी। हरहु नाथ सम संकट भारी॥

तात सक्रसुत कथा सनाएहु। बान प्रताप प्रभुहि समुझाएहु॥

मास दिवस महुँ नाथु न आवा। तौ पुनि मोहि जिअत नहिं पावा॥

कहु कपि केहि बिधि राखौं प्राना। तुम्हहू तात कहत अब जाना॥

तोहि देखि सीतलि भइ छाती। पुनि मो कहुँ सोइ दिनु सो राती॥


॥ दोहा 27 ॥

जनकसुतहि समुझाइ करि बहु बिधि धीरजु दीन्ह, चरन कमल सिरु नाइ कपि गवनु राम पहिं कीन्ह।

॥ चौपाई ॥

चलत महाधुनि गर्जेसि भारी। गर्भ स्रवहिं सुनि निसिचर नारी॥

नाघि सिंधु एहि पारहि आवा। सबद किलिकिला कपिन्ह सुनावा॥

हरषे सब बिलोकि हनुमाना। नूतन जन्म कपिन्ह तब जाना॥

मुख प्रसन्न तन तेज बिराजा। कीन्हेसि रामचन्द्र कर काजा॥

मिले सकल अति भए सुखारी। तलफत मीन पाव जिमि बारी॥

चले हरषि रघुनायक पासा। पूँछत कहत नवल इतिहासा॥

तब मधुबन भीतर सब आए। अंगद संमत मधु फल खाए॥

रखवारे जब बरजन लागे। मुष्टि प्रहार हनत सब भागे॥


॥ दोहा 28 ॥

जाइ पुकारे ते सब बन उजार जुबराज, सुनि सुग्रीव हरष कपि करि आए प्रभु काज।

॥ चौपाई ॥

जौं न होति सीता सुधि पाई। मधुबन के फल सकहिं कि काई॥

एहि बिधि मन बिचार कर राजा। आइ गए कपि सहित समाजा॥

आइ सबन्हि नावा पद सीसा। मिलेउ सबन्हि अति प्रेम कपीसा॥

पूँछी कुसल कुसल पद देखी। राम कृपाँ भा काजु बिसेषी॥

नाथ काजु कीन्हेउ हनुमाना। राखे सकल कपिन्ह के प्राना॥

सुनि सुग्रीव बहुरि तेहि मिलेऊ। कपिन्ह सहित रघुपति पहिं चलेऊ॥

राम कपिन्ह जब आवत देखा। किएँ काजु मन हरष बिसेषा॥

फटिक सिला बैठे द्वौ भाई। परे सकल कपि चरनन्हि जाई॥


॥ दोहा 29 ॥

प्रीति सहित सब भेंटे रघुपति करुना पुंज, पूछी कुसल नाथ अब कुसल देखि पद कंज।

॥ चौपाई ॥

जामवंत कह सुनु रघुराया। जा पर नाथ करहु तुम्ह दाया॥

ताहि सदा सुभ कुसल निरंतर। सुर नर मुनि प्रसन्न ता ऊपर॥

सोइ बिजई बिनई गुन सागर। तासु सुजसु त्रैलोक उजागर॥

प्रभु कीं कृपा भयउ सबु काजू। जन्म हमार सुफल भा आजू॥

नाथ पवनसुत कीन्हि जो करनी। सहसहुँ मुख न जाइ सो बरनी॥

पवनतनय के चरित सुहाए। जामवंत रघुपतिहि सुनाए॥

सुनत कृपानिधि मन अति भाए। पुनि हनुमान हरषि हियँ लाए॥

कहहु तात केहि भाँति जानकी। रहति करति रच्छा स्वप्रान की॥


॥ दोहा 30 ॥

नाम पाहरू दिवस निसि ध्यान तुम्हार कपाट, लोचन निज पद जंत्रित जाहिं प्रान केहिं बाट।

॥ चौपाई ॥

चलत मोहि चूड़ामनि दीन्हीं। रघुपति हृदयँ लाइ सोइ लीन्ही॥

नाथ जुगल लोचन भरि बारी। बचन कहे कछु जनककुमारी॥

अनुज समेत गहेहु प्रभु चरना। दीन बंधु प्रनतारति हरना॥

मन क्रम बचन चरन अनुरागी। केहिं अपराध नाथ हौं त्यागी॥

अवगुन एक मोर मैं माना। बिछुरत प्रान न कीन्ह पयाना॥

नाथ सो नयनन्हि को अपराधा। निसरत प्रान करहिं हठि बाधा॥

बिरह अगिनि तनु तूल समीरा। स्वास जरइ छन माहिं सरीरा॥

नयन स्रवहिं जलु निज हित लागी। जरैं न पाव देह बिरहागी॥

सीता कै अति बिपति बिसाला। बिनहिं कहें भलि दीनदयाला॥

Kalash
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